एक बार फिर छत्तीसगढ़ में लोकतंत्र की हत्या: अंबेडकर अस्पताल बना पत्रकारों का युद्धक्षेत्र, बाउंसरों की गुंडागर्दी...
संदेश भारत, रायपुर। रायपुर के अंबेडकर अस्पताल में रविवार देर रात जो हुआ, वह न केवल शर्मनाक है, बल्कि लोकतंत्र के चौथे स्तंभ पर सीधा हमला है। पत्रकार जो समाज की आंख, कान और जुबान होते हैं, उन्हें एक सरकारी अस्पताल में रिपोर्टिंग करने से रोका गया, पीटा गया, धमकाया गया और यहां तक कि जान से मारने की धमकी दी गई। और ये सब हुआ पुलिस की मौजूदगी में! सवाल उठता है कि क्या छत्तीसगढ़ में अब पत्रकारिता अपराध बन चुकी है?
पत्रकारों पर हमला: अस्पताल बना अखाड़ा, सुरक्षा की जगह आतंक
अंबेडकर अस्पताल में रविवार रात एक चाकूबाजी की घटना में घायल हुए युवक की कवरेज के लिए पत्रकार पहुंचे थे। यह उनका कर्तव्य था, समाज को सच्चाई दिखाना उनकी जिम्मेदारी थी। लेकिन जैसे ही वे अस्पताल पहुंचे, वहां तैनात बाउंसरों ने उन्हें रोकना शुरू कर दिया। मना करने पर बात हाथापाई तक पहुंच गई। बाउंसरों ने पत्रकारों के साथ धक्का-मुक्की की, उन्हें गालियां दीं और बाहर निकालने की कोशिश की।
यह कोई मामूली झगड़ा नहीं था—यह एक सोची-समझी साजिश की तरह लगा। अस्पताल में तैनात प्राइवेट सुरक्षा एजेंसी के बाउंसरों ने लोकतंत्र के प्रहरी पत्रकारों को अपराधियों की तरह पीटा। क्या अस्पताल अब माफियाओं की शरणस्थली बन चुके हैं?
गुंडा राज का प्रतीक: बाउंसर लेकर आया पिस्टल, प्रशासन लाचार
मामला तब और गंभीर हो गया जब सुरक्षा एजेंसी "कॉल मी सर्विस" का संचालक वसीम बाबू खुद पिस्टल लेकर अस्पताल पहुंचा। उसके साथ तीन अन्य बाउंसर भी थे। वसीम ने खुलेआम पत्रकारों को धमकाया, गालियां दीं और जान से मारने की धमकी दी। हैरानी की बात यह है कि इस पूरी घटना के दौरान पुलिस मौके पर मौजूद थी, लेकिन उन्होंने कोई हस्तक्षेप नहीं किया।
क्या पुलिस अब तमाशबीन बन चुकी है? क्या रायपुर में अब असलहों के दम पर कानून चलाया जाएगा?
महिला सुरक्षाकर्मियों को हटाया गया, पत्रकारों को खींचा गया बाहर
घटना तब और शर्मनाक हो गई जब महिला सुरक्षाकर्मियों को जबरन हटाया गया और पुरुष बाउंसरों ने पत्रकारों को खींच-खांच कर अस्पताल परिसर से बाहर निकालने की कोशिश की। यह न केवल पत्रकारों की गरिमा पर हमला है, बल्कि महिलाओं की सुरक्षा को भी ठेंगा दिखाना है।
क्या अस्पताल अब अपराधियों का अड्डा बन चुका है, जहां कानून का कोई डर नहीं?
प्रेस क्लब का विरोध और मुख्यमंत्री आवास का घेराव
इस कांड की खबर फैलते ही रायपुर प्रेस क्लब और अन्य पत्रकार संगठनों ने मौके पर पहुंचकर विरोध शुरू कर दिया। जब पुलिस ने कोई ठोस कार्रवाई नहीं की, तो पत्रकारों का गुस्सा फूट पड़ा। सभी पत्रकारों ने मिलकर मुख्यमंत्री आवास का घेराव किया और देर रात तक धरने पर बैठे रहे।
यह पत्रकारों का नहीं, बल्कि पूरे लोकतंत्र का आंदोलन बन चुका था।
अधीक्षक की सड़क पर माफी, लेकिन क्या इतना काफी है?
रात करीब 12 बजे अंबेडकर अस्पताल के अधीक्षक डॉ. संतोष सोनकर और SSP डॉ. लाल उम्मेद सिंह मौके पर पहुंचे। अधीक्षक ने सड़क पर बैठकर पत्रकारों से माफी मांगी और कहा कि वे "कॉल मी सर्विस" नामक एजेंसी का टेंडर रद्द करने की सिफारिश करेंगे। माफ कीजिए, माफीनामा अब काफी नहीं है। सवाल यह है कि ऐसी एजेंसी को टेंडर किसने दिया? किसकी मिलीभगत से अस्पताल में बाउंसरों को पिस्टल रखने की छूट मिली?
सरकार की चुप्पी और मंत्री की धमकी: दिखावा या सच्चा इरादा?
स्वास्थ्य मंत्री श्याम बिहारी जायसवाल ने बयान दिया कि “जो पत्रकारों को धमकाते हैं, उन्हें मिट्टी में मिला देंगे।” मंत्री जी, इस बयान से पहले कार्रवाई कीजिए। पत्रकारों की सुरक्षा हवा में नहीं, जमीन पर नजर आनी चाहिए। छत्तीसगढ़ सरकार की चुप्पी भी कई सवाल खड़े करती है। अगर लोकतंत्र की आवाज को यूं कुचला जाएगा और सत्ता मौन रहेगी, तो यह संकेत है तानाशाही की तरफ बढ़ते कदमों का।
तीन बाउंसर गिरफ्तार, पिस्टल बरामद—but justice is still pending
पुलिस ने वसीम बाबू और उसके दो बाउंसरों को गिरफ्तार कर लिया है। वसीम के घर से पिस्टल और गोलियां भी बरामद हुई हैं। लेकिन सवाल ये है कि क्या केवल गिरफ्तारी से न्याय हो जाएगा? क्या अस्पताल प्रशासन और पुलिस की जिम्मेदारी तय नहीं होनी चाहिए?
किसने वसीम को अस्पताल में पिस्टल लेकर घुसने दिया? क्या पुलिस की मिलीभगत नहीं थी?अब सवाल सरकार से: जवाब चाहिए, सिर्फ बयान नहीं
कॉल मी सर्विस नामक एजेंसी को अस्पताल में सुरक्षा का ठेका किस आधार पर दिया गया? क्यों नहीं अस्पतालों में सीसीटीवी फुटेज तुरंत सार्वजनिक किए जाते? पुलिस मूक दर्शक क्यों बनी रही? क्या उन्हें आदेश था कि कुछ न करें?
पत्रकारों की सुरक्षा के लिए अब तक क्या स्थायी कदम उठाए गए हैं?
सरकार को अब जवाब देना होगा। अगर लोकतंत्र के पहरेदारों को ही इस तरह कुचला जाएगा, तो आम आदमी की सुरक्षा की क्या उम्मीद की जा सकती है?
यह सिर्फ पत्रकारों की लड़ाई नहीं, हर नागरिक की लड़ाई है
अंबेडकर अस्पताल की यह घटना एक आइना है, जिसमें हम साफ देख सकते हैं कि कैसे सरकारी संस्थान और सत्ता के नशे में चूर एजेंसियां अब आम जनता की आवाज को दबाने पर तुली हैं।
यह केवल पत्रकारों की नहीं, बल्कि हर उस नागरिक की लड़ाई है जो सच के लिए खड़ा होता है। आज पत्रकार पिटे हैं, कल कोई और पिटेगा—अगर हमने आज चुप्पी साधी।
अब वक्त है कि हम सवाल करें, आवाज उठाएं और जवाब मांगें। वरना अंबेडकर अस्पताल जैसे संस्थान आने वाले दिनों में ‘लोकतंत्र की कब्रगाह’ बन जाएंगे।