सन्देश भारत, रायपुर । भारत सरकार ने एलन मस्क की स्टारलिंक और मुकेश अंबानी की जियो सहित कुछ चुनिंदा कंपनियों को सैटेलाइट आधारित इंटरनेट सेवाएं शुरू करने की मंजूरी दे दी है। लेकिन इस प्रक्रिया में पारदर्शिता के अभाव, राष्ट्रीय सुरक्षा पर मंडराते खतरे और संभावित आर्थिक नुकसान को लेकर गंभीर सवाल खड़े हो गए हैं। बिना नीलामी, बिना शर्तों के सार्वजनिक खुलासे और कंपनियों के नाम तक छुपाने की कोशिशें, सरकार के फैसले को संदेह के घेरे में डाल रही हैं।
भारत में स्पेक्ट्रम जैसी कीमती सार्वजनिक संपत्ति का आवंटन सामान्यत: नीलामी के ज़रिए होता है। लेकिन सैटेलाइट स्पेक्ट्रम के मामले में सरकार ने “एडमिनिस्ट्रेटिव प्रोसेस” यानी सीधे प्रशासनिक निर्णय से लाइसेंस जारी किए हैं।
सरकार ने यह नहीं बताया कि:
किस आधार पर किन कंपनियों को चुना गया?
लाइसेंस किन नियमों और शर्तों के साथ दिए गए?
किस दर पर स्पेक्ट्रम आवंटित हुआ?
यह प्रक्रिया न केवल ट्रांसपेरेंसी की धज्जियाँ उड़ाती है, बल्कि सुप्रीम कोर्ट के 2G स्पेक्ट्रम केस में दिए गए निर्देशों का भी उल्लंघन करती है। कोर्ट ने साफ कहा था कि प्राकृतिक संसाधनों का आवंटन “फेयर एंड ट्रांसपेरेंट” तरीके से होना चाहिए — न कि बंद दरवाज़ों के पीछे।
स्टारलिंक की मूल कंपनी स्पेस-एक्स का अमेरिकी रक्षा विभाग से गहरा जुड़ाव है। यूक्रेन, सूडान और गाज़ा जैसे युद्ध क्षेत्रों में स्टारलिंक का इस्तेमाल सैन्य अभियानों में किया गया है।
भारत में अभी सेवा शुरू नहीं हुई, लेकिन मणिपुर में इंटरनेट बंदी के बावजूद उग्रवादी समूहों द्वारा म्यांमार के ज़रिए स्टारलिंक का इस्तेमाल इसका उदाहरण है कि यह तकनीक किस तरह भारत की सुरक्षा व्यवस्था को दरकिनार कर सकती है।
ईरान, रूस और चीन जैसे देशों ने पहले ही स्टारलिंक पर बैन लगा दिया है, लेकिन भारत सरकार इसकी सेवाओं को पूरे देश में खोलने की तैयारी में है — वो भी बिना पर्याप्त निगरानी ढांचे के।
कांग्रेस सांसद मनीष तिवारी और पूर्व सचिव ई. ए. एस. शर्मा जैसे वरिष्ठ अधिकारियों ने सरकार से कई बार सवाल पूछे, लेकिन जवाब या तो गोलमोल थे या फिर बिल्कुल ही नहीं आए।
जब कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव (CHRI) के वेंकटेश नायक ने RTI दाखिल की, तो सरकार ने केवल कंपनी के नाम बताए — शर्तें, दरें और चयन प्रक्रिया से जुड़ी सभी जानकारी देने से इंकार कर दिया। RTI अधिनियम की धारा 8(1)(d) और (e) का हवाला देकर कहा गया कि ये जानकारी “गोपनीय” है।
लेकिन सुप्रीम कोर्ट के पहले के फैसले कहते हैं कि सरकार द्वारा सार्वजनिक संसाधनों से जुड़ी कोई भी जानकारी जनता से नहीं छुपाई जा सकती। फिडूशियरी रिलेशनशिप का तर्क बेमानी है क्योंकि ये डेटा सरकार ने खुद अपने कानूनी अधिकार के तहत जुटाया है।
टेलीकॉम स्पेक्ट्रम की नीलामी से सरकार को अब तक लाखों करोड़ रुपये की आमदनी हुई है। ऐसे में बिना नीलामी के स्पेक्ट्रम देना सीधे तौर पर सरकारी खजाने को नुकसान पहुंचाता है।
ई. ए. एस. शर्मा का आरोप है कि स्टारलिंक, जियो और एयरटेल जैसे बड़े ऑपरेटर आपस में कार्टेल बनाकर बाजार पर कब्ज़ा करने की तैयारी में हैं, जिससे प्रतिस्पर्धा खत्म हो सकती है और उपभोक्ताओं के पास विकल्प कम हो जाएंगे।
सरकार ने अब तक यह साफ नहीं किया है कि:
स्पेक्ट्रम की दर क्या थी?
किसी भी कंपनी को लाभकारी शर्तें दी गईं या नहीं?
सुरक्षा के लिए क्या उपाय किए गए?
भारत में स्टारलिंक जैसे विदेशी नेटवर्क की निगरानी कैसे होगी?
संचार मंत्रालय के अधिकारियों से संपर्क करने पर भी कोई जवाब नहीं मिला। ये चुप्पी सवालों को और गंभीर बना देती है।
सैटेलाइट इंटरनेट देश के सुदूर इलाकों के लिए वरदान साबित हो सकता है, लेकिन यह सुविधा अगर अपारदर्शी, पक्षपातपूर्ण और निगरानीहीन तरीके से शुरू की जाए, तो यह वरदान जल्द ही संकट में बदल सकता है।
सरकार को चाहिए कि:
सभी अनुमति दस्तावेज़ और शर्तें सार्वजनिक करे।
स्वतंत्र न्यायिक जांच हो कि किसी को अनुचित लाभ तो नहीं मिला।
राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े खतरे पर विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट लाई जाए।
सभी कंपनियों के साथ समान व्यवहार हो और मोनोपोली को रोका जाए।
भारत की जनता को यह जानने का हक है कि उनके देश के स्पेक्ट्रम जैसे अमूल्य संसाधनों का इस्तेमाल कैसे और किसे दिया गया। बिना पारदर्शिता, बिना जवाबदेही और बिना निगरानी—ये मंजूरियाँ सिर्फ तकनीक नहीं, नीतियों का अंधकार भी साथ लेकर आ रही हैं।
सरकार को चुनिंदा कंपनियों से ज्यादा, देश के हित और नागरिकों के भरोसे की चिंता करनी चाहिए।
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