माओवादियों के हमलों से शिक्षादूतों में डर का माहौल है। कई शिक्षादूतों ने सुरक्षा की कमी के कारण अपने काम को बंद कर दिया है, जिससे आदिवासी बच्चों की शिक्षा पर सीधा असर पड़ रहा है। स्थानीय प्रशासन ने इन शिक्षादूतों की सुरक्षा के लिए कदम उठाने का आश्वासन दिया है, लेकिन दुर्गम और माओवाद प्रभावित इलाकों में यह एक बड़ी चुनौती है। |
संदेश भारत रायपुर l बीजापुर, बस्तर क्षेत्र में शिक्षा का प्रसार करने वाले आदिवासी युवा माओवादियों के निशाने पर आ गए हैं, जिससे क्षेत्र में शिक्षा और सुरक्षा दोनों पर गंभीर सवाल खड़े हो गए हैं। पिछले दो वर्षों में माओवादी हिंसा में कम से कम 6 शिक्षादूतों की बेरहमी से हत्या कर दी गई है। यह घटनाएं न केवल स्थानीय समुदाय में डर का माहौल बना रही हैं, बल्कि क्षेत्र के भविष्य को भी खतरे में डाल रही हैं।
हाल ही में, बीजापुर-सुकमा जिले की सीमा पर स्थित सिलगेर गांव में कार्यरत शिक्षादूत लक्ष्मण बाडसे की हत्या ने एक बार फिर माओवादी हिंसा की भयावहता को उजागर किया। पुलिस मुखबिरी का आरोप लगाते हुए, माओवादियों ने तेज धारदार हथियार से उनकी हत्या कर दी।
HIGHLIGHTS
1 . बस्तर में माओवादी कर रहे आदिवासी शिक्षा दूतों की हत्या 2 . माओवादियों ने 2 सालों में 6 शिक्षा दूतों निर्मम हत्या कर दi 3 . माओवादियों ने अपने खिलाफ साजिश मानकर कर रहे हत्या |
इससे पहले भी, इस तरह की कई घटनाएं सामने आ चुकी हैं:
1 . जुलाई 2025 में, बीजापुर के फरसेगढ़ थाना क्षेत्र में विनोद मड्डे (32) और सुरेश मेटा (28) का अपहरण कर उनकी हत्या कर दी गई। उनके शव इंद्रावती नेशनल पार्क के जंगलों में मिले। माओवादियों ने उन पर पुलिस के लिए मुखबिरी करने का आरोप लगाया था।
2 . सितंबर 2024 में, बीजापुर जिले के दूरस्थ गांव में बमन कश्यप (29) और अनिश राम पोयम (38) को उनके घरों से उठाकर गला घोंटकर मार दिया गया। उनके पास से पुलिस मुखबिरी का पर्चा भी बरामद हुआ था।
3 . नारायणपुर के छोटेबेठिया थाना क्षेत्र के बिनागुंडा गांव में मनेश नरेटी को भी माओवादियों ने जन अदालत में मार दिया था। मनेश ने 15 अगस्त को एक माओवादी स्मारक पर तिरंगा फहराया था, जिसे माओवादियों ने अपने खिलाफ एक साजिश के रूप में देखा।
इन घटनाओं ने क्षेत्र के लोगों और प्रशासन दोनों को चिंता में डाल दिया है। विशेषज्ञों का मानना है कि माओवादियों का उद्देश्य आदिवासी युवाओं को शिक्षा से दूर रखना है। उनका मानना है कि शिक्षित युवा स्वतंत्र रूप से सोचने लगते हैं और शासन-प्रशासन के करीब आते हैं, जिससे उनका वर्चस्व कमजोर होता है।
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यह पहली बार नहीं है जब बस्तर में शिक्षा को निशाना बनाया जा रहा है। सलवा जुड़ूम आंदोलन के दौरान भी, दो हजार से अधिक स्कूलों को नष्ट कर दिया गया था, जिससे कई पीढ़ियों को शिक्षा से वंचित होना पड़ा।
अब, एक बार फिर, माओवादी अपनी हिंसक नीतियों के माध्यम से इस क्षेत्र के विकास और प्रगति को रोकने की कोशिश कर रहे हैं। इन हत्याओं ने यह साफ कर दिया है कि बस्तर में शिक्षा की राह आसान नहीं है, और शिक्षादूतों के लिए सुरक्षा एक बड़ी चुनौती बनी हुई है।
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